रबी-उल-अव्वल और
मुसलमानों का तर्जेअमल
7415066579 MUHAMMAD ABDURRAHEEM KHAN QUADRI RAZVI JAMDA SHAHI BASTI UP 9039807215
अब से तकरीबन बीस सौ बरस पहले जबकि दुनिया जुल्मात के दरिया में गर्क थी और रूहानियत शैतानियत से मगलूब हो रही थी, अल्लाह तआला ने अपने आखिरी नबी और महबूब तरीन रसूल (सल0) को दुनिया में भेजा ताकि आप नूरे हिदायत से जुल्मात को शिकस्त दें और हक को बातिल पर गालिब कर दें। हमारे मां-बाप आप पर निसार हों, आप तशरीफ लाए और आते ही दुनिया का रूख पलट दिया, बन्दों का टूटा हुआ रिश्ता खुदा से जोड़ा और जो जलालत में गिर चुके थे उनको वहंा से उठाकर बुलंदी पर पहुंचाया। मुश्रिकों को मूहिद बनाया और काफिरों को मोमिन, बुतपरस्तों को खुदापरस्त किया और बुतसाजों को बुतशिकन, रहजनों को रहनुमाई सिखाई, और गुलामों को आकाई, चोर, चैकीदार बन गए और जालिम गमख्वार और जो दुनिया भर के अवारा थे वही सबसे ज्यादा लायक हो गए और जिनका कौमी ढंाचा बिखर गया था वह मुकम्मल तौर पर मुनज्जम कर दिए गए। रूहानियत के फरिश्ते शैतानियत पर गालिब आ गए, कुफ्र व शिर्क, खिदमत व जलालत और हर किस्म की गुमराहियों को जबरदस्त शिकस्त हुई, शकावत व बदबख्ती का मौसम बदल गया। जुुल्म व फसाद को जोर खत्म हो गया। हक व सदाकत और खैर व सआदत ने आलमगीर फतेह पाई और जमीन पर अम्न व अमान कायम हो गया।
जिस वक्त दुनिया में नबी (सल0) ने अपना पहला कदम रखा था वह रबी अव्वल ही का महीना था और फिर जब आप की उम्र चालीस बरस की हुई तो इसी महीने में दुनिया की इस्लाह का काम आप के सुपुर्द हुआ। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि रबी अव्वल ही इस रहमते आम्मा के जुहूर का मुब्दा और रूहानी खैरात व बरकात के वफूर का मंबा है और यही वजह है कि जब यह मुबारक महीना आता है तो मुसलमानों के दिलों में यहां तक कि उनके दिलों में भी जो दूसरे मौसमों में बिल्कुल गाफिल रहते हैं इस मुकद्दस वजूद की याद ताजा हो जाती है और तरह-तरह की खुशियों का इजहार किया जाता है।
नोमाएइलाही की याद से खुश होना बुरी चीज नहीं बल्कि शरीअत की हुदूद से पार न जाया जाए तो एक दर्जा में महमूद है। लेकिन आज मुझे अर्ज करना यह है कि आप जश्न की इन घडि़यों और शादमानी के इन पलों में उस काबिले मातम हकीकत को क्यों भूल जाते हो कि इस मुकद्दस व मसूद वजूद ने इस मुबारक महीने में आकर आपको जो कुछ दिया था आज आप अपनी शामते आमाल से सब कुछ खो चुके हैं।
रबी अव्वल अगर आप के लिए खुशियों का मौसम और मसर्रतों का पैगाम है तो सिर्फ इसलिए कि इस महीने में दुनिया की खजां जलालत को बहारे हिदायत ने आखिरी शिकस्त दी थी और इसी महीने में नबी करीम (सल0) दुनिया में आए थे जिन्होंने तुम पर रूहानियत के दरवाजे खोल दिए और वह सारी नेमतें तुम को दिलवा दी जिनसे तुम महरूम थे फिर अगर आज तुम उन की लाई हुई शरीअत से दूर और उन की दिलाई हुई नेमतों से महरूम होते जा रहे हो तो क्या वजह है कि पिछले बहार की खुशी तो मनाते हो लेकिन खिजां की मौजूदा पामालियों पर नहीं रोते।
तुम रबी अव्वल में आने वाले के इश्क का दावा रखते हो और उसकी याद के लिए मजलिसे मुनअकिद करते हो लेकिन यह नहीं सोंचते कि तुम्हारी जबान जिस की याद का दावा कर रही है उसकी फरामोशी के लिए तुम्हारा हर अमल गवाह है और जिस की ताजीम व तकसीम का तुम को बड़ा फख्र है तुम्हारी गुमराहाना जिंदगी बल्कि तुम्हारे वजूद से उसकी इज्जत को बट्टा लग रहा है।
अगर तुम्हारे इस इश्क व मोहब्बत के दावे में कोई सदाकत होती और तुम को हकीकत में उनसे गुलामी का थोड़ा सा भी ताल्लुक होता तो तुम्हारी दीनी हालत हरगिज इस कदर तबाह न होती। तुम नमाज के आदी होते और जकात पर आमिल, तकवा तुम्हारा काम होता और सुन्नत की पैरवी तुम्हारा तुर्रा-ए-इम्तियाज होता और तुम हराम व हलाल में फर्क करते बल्कि शुब्हात के मौके से भी बचते, तुम्हारी जिंदगी नमूना होती सहाबा का और तुम्हारा हर अमल मुरक्का होता इस्लाम का।
अब जबकि तुम्हारा यह हाल नही है और तुम अपने दिलों से पूछों वहां से यही जवाब मिलेगा कि हां नहीं है, तो फिर यकीन करो कि रबी अव्वल के मौके पर तुम्हारी यह इश्क व मोहब्बत की नुमाइश सिर्फ फरेब नफ्स है जिसमें तुम खुद मुब्तला हो सकते हो या तुम्हारे जाहिर में दोस्त व अहबाब, खुदावंद अलीम व खबीर तुम्हारे इस फरेब में नही आ सकता और न ही उसके रसूल (सल0) को तुम उन हकीकत से खाली मुजाहिरे से द्दोका दे सकते हो।
इसलिए मै तुम से कहता हूं और अल्लाह पाक की कसम सिर्फ तुम्हारी खैरख्वाही के लिए कहता हूं कि तुम अपनी इन रस्मी मजलिसों की आराइश से पहले अपने उजड़े हुए दिल की खबर लो और कंदीलों के रौशन करने के बजाए अपने दिलों को ईमान की रौशनी से रौशन करने की फिक्र करो।
तुम गैरों की तकलीद में नकली फूलों के गुलदस्ते सजाते हो मगर तुम्हारी हस्नात का जो गुलशन उजड़ रहा है उसकी हिफाजत और शादाबी का कोई इंतजाम नहीं करते। तुम रबी अव्वल की बरकतों और रहमतों का तसव्वुर करके खुशी के तराने गाते हो लेकिन अपनी इस बर्बादी पर मातम नहीं करते कि तुम्हारा खुदा तुम से रूठा हुआ है। उसने तुम्हारी बद आमालियों से नाराज होकर अपनी दी हुई नेमतों को तुम से छीन ली है तुम आका से गुलाम, हाकिम से महकूम, गनी से मुफलिस, जरदार से बेजर बल्कि बेघर हो चुके हो। तुम्हारे ईमान का चिराग टिमटिमा रहा है और तुम्हारे नेक आमाल का फूल मुरझा रहा है और गजब यह है कि तुम गाफिल हो।
क्या इस महरूमी और मगजूबी की हालत में भी तुम को हक पहुंचता है कि रबी अव्वल में आने वाले दीन व दुनिया की नेमतें लाने वाले रहमतुल आलमीन (सल0) की आमद की यादगार में खुशियां मनाओ। बकौल अल्लामा अबुल कलाम आजाद-क्या मौत और हलाकी को इसका हक पहुंचता है कि जिंदगी और रूह का अपने को साथी बताए? क्या एक मुर्दा लाश पर दुनिया की अक्लें न हंसेगी अगर वह जिंदों की तरह जिंदगी को याद करेगी? हां यह सच है कि आफताब की रौशनी के अन्दर दुनिया के लिए बड़ी खुशी ही खुशी है लेकिन अंद्दे कोकब जेब देता है कि वह आफताब के निकलने पर आंख वालों की तरह खुशियां मनाए।
इसलिए ऐ गफलत में पड़े लोगों! तुम्हारी गफलत पर हसरत और तुम्हारी सरशारियों पर अफसोस अगर तुम इस मुबारक महीने की अस्ली इज्जत व हकीकत से बेखबर हो और सिर्फ जबानों के तराने और दीवार की आराइशों और रौशनी की कंदीलों ही में इसके मकसदे यादगारी को गुम कर दो, तुम को मालूम होना चाहिए कि यह मुबारक महीने की बुनियाद का पहला दिन है। खुदावंदी बादशाहत के कयाम का अव्वलीन एलान है। खिलाफत अरजी व विरासते इलाही की बख्शियत का सबसे पहला महीना है। इसलिए इसके आने की खुशी और इसका तजकिरा व याद की लज्जत यह उस शख्स की रूह पर हराम, जो अपने ईमान और अमल के अन्दर उस पैगामे इलाही की तामील व इताअत और नमूने की तासी और पैरवी के लिए कोई नमूना नहीं रखता।
हज़रत मोहम्मद (सल0) के अच्छे अख़लाक
मोहम्मद मुस्तफा (सल0) सबसे पहले नबी हैं आप आखिरी नबी हैं और आप उम्मुल किताब के हामिल हैं। आप(सल0) साहबे मेराज हंै आप शाफये महशर हैं। आप साहिबे अजवाज व औलाद हैं आप फातहे आलम हैं, आप मुत्तकी थे, आप साबित कदम और मुस्तकिल मिजाज थे, आप साहिबे जेहाद थे, आप(सल0) वक्त के पाबंद थे, ताजिर थे, मेहमान नवाज थे, हौसला और अज्म की मिसाल थे, शर्म व हया की तस्वीर थे, सादा मिजाज थे, बच्चो, बड़ो, गुलामों, गरीबों, औरतों व गैर इंसानी तबकों पर एक सी मोहब्बत और मेहरबानी करते थे। आप (सल0) को दुनिया में सबसे ज्यादा जो चीज पसंद थी वह नमाज और खुश्बू थी। इन सबसे बढ़कर आप (सल0) को अपनी उम्मत प्यारी थी। आप (सल0) हमेशा बीवी बच्चों का, बुजुर्गो का, रिश्तेदारों का, पड़ोसियों का, यतीमों का, मेहमानों का, बीमारों का, गुलामों का, इंसानी बिरादरी का यहां तक कि जानवरों के हुकूक का ख्याल रखते थे। आप (सल0) को आदाबे मजलिस में, खाने पीने में, बात-चीत करने में, सफर में, बैठने उठने में, सोने-जागने में, लिबास के पहनने में, इबादत में गरज कि हर चीज में आदाब का ख्याल दिल में रहता था। आप (सल0) एक ही वक्त में नबी भी थे रसूल भी थे, सरदार भी थे, हाकिम भी थे, मुंसिफ भी थे, अमीन भी थे, सादिक भी थे, आबिद भी थे, मुतवक्कल भी थे। इस तरह अगर आप (सल0) के औसाफ व अच्छे एखलाक को लिखा जाए तो यह सिलसिला खत्म नहीं हो सकता। यूं तो तमाम आलिमों का परवरदिगार और तारीफों का मालिक अल्लाह खुद आप (सल0) की तारीफ फरमाता है तो हम जैसे गुनाहगार बन्दों की क्या मजाल कि उस जात-ए-पाक की तारीफ कर सकें।
शर्म व हयाः- आप (सल0) की शर्म व हया का यह आलम था जिसके मुताल्लिक सहाबा कराम फरमाते हैं कि आप (सल0) एक पर्दा करने वाली क्वारी लड़की से भी ज्यादा शर्मीले थे।
वादे के पाबंद:- हजरत नबी करीम (सल0) वादे के बहुत पाबंद थे। जो वादा करते वह पूरा करते। लिहाजा अब्दुल्लाह बिन हमस सहाबी फरमाते हैं कि मैंने हुजूर (सल0) से एक सौदा किया और कुछ देर बाद उसी जगह मिलने का वादा करके चला गया। जो मुझे याद नहीं रहा। तीन दिन के बाद जब मैं वहां पहुंचा तो आप (सल0) उसी जगह इंतजार में थे जब मुझे देखा तो सिर्फ इतना कहा तुम ने तकलीफ दी मैं तीन रोज से इसी जगह पर तुम्हारे इंतजार में हूं।
एहसान:- नबी करीम (सल0) का दुनिया में तश्रीफ लाकर अपनी मुबारक तालिमात से अरब बल्कि तमाम अहले दुनिया को जलालत व गुमराही से निकालकर हिदायत की राह पर डालना और उनके दिलों एखलाक व आमाल को बुराइयों से पाक कर देना और गुलाम को आका और आकाओं के आका बना देना। लड़कियों को जिंदा दफन करने से बचा लेना, महरूम व मजलूम औरतों को उनके जायज हुकूक दिलवाना, गुलामी की मनहूसियत को हमेशा के लिए इंसानों के सर से उतार देना, बेगानों से अच्छे सुलूक से खुद पेश आना, इसके अलावा इंसानों को उसकी तालीम से आरास्ता कर देना। गरज कि आप (सल0) की जिंदगी का यह कारनामा दुनिया इंसानियत बल्कि सारी खिलकत पर एक अजीम एहसान है। तवाजो सादगी और बेतकुल्लफी आप (सल0) लोगों को खुद पहले सलाम करते। हर छोटे-बड़े के साथ खुशी से बातचीत करते, जब किसी से मुसाफेहया करते तो जब तक दूसरा शख्स खुद हाथ नहीं छोड़ता आप (सल0) थामें रहते। जब सदका देते तो खुद अपने हाथ से मिस्कीनों को दिया करते। आप (सल0) सहाबा कराम की मजलिस में जाते तो पीछे ही बैठ जाते और अपना काम अपने हाथों से कर लिया करते थे। किसी पर कोई सख्ती नहीं करते। खुद बाजार जाते और अपना सामान खुद ही उठाकर लाते। आप (सल0) ने मदीने मुनव्वारा की मस्जिद की तामीर और खन्दक की खुदाई के कामों में खुद भी अमली तौर से हिस्सा लिया है। आप (सल0) का लिबास तमाम लोगों की तरह बिल्कुल सादा होता। दौलत और हुकूमत की तरह बड़े मकानों के बजाए मामूली मकानों में रहते, अपने ही हाथ से अपने कपड़े और जूते ठीक किया करते थे। अपने ऊंट को आप (सल0) खुद ही बांधते थे और अपने खादिम के साथ बेतकल्लुफी के साथ खाना खा लिया करते थे। मुसीबत जदा लोगों और मोहताजों की मदद करते।
फसाहत व बलागत:- आप (सल0) का अंदाजे बयान इतना आसान और दिलकश समझाने वाला और ऐसा निराला व मोजिजाना था कि उसकी मिसाल किसी नसीहत करने वाले के कलाम में नहीं मिलती। आप (सल0) फसाहत व बलागत के मम्मबा (श्रोत) आप (सल0) का हर लफ्ज मानी का समन्दर था और हर कलमा हकायक से लबरेज, हर कौल हुकूमतों का सर चश्मा और हर जुमला फसाहत व बलागत का एक दरिया था। आप (सल0) का सुनने वाला चाहे वह मुल्क के किसी भी इलाके का रहने वाला क्यों न हो आप (सल0) का चाहने वाला बन जाता। और उसको मानना पड़ता कि हुजूर (सल0) फसाहत व बलागत के इमाम हैं। आप (सल0) रूक-रूक कर साफ कलाम करते। अहले अरब को अपनी फसाहत व बलागत पर बहुत नाज था और लाजवाब अशआर को खाना-ए-काबा की दीवारों पर लटका दिया करते थे। लेकिन आप (सल0) की फसाहत व बलागत के जौहर देख कर दंग रह जाते थे हजरत अबू बक्र सिद्दीक (रजि0) हुजूर (सल0) की फसाहत व बलागत पर हैरत करते थे। इसलिए आप (सल0) फरमाते हैं कि मैने अरब की हर गली, कूचा और बाजार में घूमते हुए तमाम फसीह व बलीग कलाम सुना है लेकिन आप (सल0) की फसाहत व बलागत के मुकाबले में वह सब बहुत नीचे हैं।
बहादुरी:- हजरत (सल0) की जिंदगी का बहादुरी का दौर बचपन से वफात तक आप (सल0) की शुजाअत के जवाहर के नमूने रौशन रहे हैं। बचपन में जब आप (सल0) को बुतों की कसम खाने पर मजबूर किया गया कि आप (सल0) ने फरमाया कि मेरे सामने उनका नाम ना लो, मुझे उनसे सख्त नफरत है। एक मर्तबा जब आप (सल0) चचा अबु तालिब के साथ सीरिया के सफर पर गए तो काफिले को एक ऐसी वादी से गुजरना था जिसमें पानी भरा हुआ था काफिले के लोग खौफजदा हो गए लेकिन आप (सल0) ने कदम बढ़ाया और सबको पीछे-पीछे आने की हिदायत करके वादी को काफिले के साथ पार कर लिया। हजरत अली (रजि0) फरमाते हैं कि आहजरत (सल0) से ज्यादा दुश्मन का मुकाबला करने वाला कोई न था। जब ज्यादा खौफनाक सूरत अख्तियार कर जाती और हंगामा मच जाता तो हम आपकी ही आड़ लेते। एक रात मदीने के लोग एक अजनबी आवाज से घबरा गए। कुछ लोग आवाज की जानिब दौड़े तो देखते हैं कि आप (सल0) घोड़े पर सवार वापस आ रहे हैं। लोगों के पहुंचने से पहले ही आप (सल0) आवाज का पता लगाने निकल चुके थे। वापस आकर आप (सल0) ने लोगों से कहा घबराओ नहीं।
हक की बात कहना:- आप(सल0) हक की बात कहने से कभी बाज न आए और न दुनिया की कोई चीज इससे आपको रोक सकी। अगरचे इससे रोकने के लिए आपके पास माल व दौलत, सोना, चांदी, जवाहरात, बड़ी इमारतें, हुकूमतें और खूबसूरत औरतों तक की पेशकश की गई लेकिन आप (सल0) ने उनकी तमाम पेशकश को ठुकरा दिया और कहा कि मैं हक की तरफ से आया हूूं, हक की बात कहना मेरा काम है सफा और मरवा के बराबर सोने और चांदी के ढेर भी मेरे सामने लाकर रख दिए जाएं तो भी मैं हक बात कहने से बाज नहीं रह सकता। आप (सल0) ने हर मामले और हर मरहले में हक गोई से काम लिया।
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अब से तकरीबन बीस सौ बरस पहले जबकि दुनिया जुल्मात के दरिया में गर्क थी और रूहानियत शैतानियत से मगलूब हो रही थी, अल्लाह तआला ने अपने आखिरी नबी और महबूब तरीन रसूल (सल0) को दुनिया में भेजा ताकि आप नूरे हिदायत से जुल्मात को शिकस्त दें और हक को बातिल पर गालिब कर दें। हमारे मां-बाप आप पर निसार हों, आप तशरीफ लाए और आते ही दुनिया का रूख पलट दिया, बन्दों का टूटा हुआ रिश्ता खुदा से जोड़ा और जो जलालत में गिर चुके थे उनको वहंा से उठाकर बुलंदी पर पहुंचाया। मुश्रिकों को मूहिद बनाया और काफिरों को मोमिन, बुतपरस्तों को खुदापरस्त किया और बुतसाजों को बुतशिकन, रहजनों को रहनुमाई सिखाई, और गुलामों को आकाई, चोर, चैकीदार बन गए और जालिम गमख्वार और जो दुनिया भर के अवारा थे वही सबसे ज्यादा लायक हो गए और जिनका कौमी ढंाचा बिखर गया था वह मुकम्मल तौर पर मुनज्जम कर दिए गए। रूहानियत के फरिश्ते शैतानियत पर गालिब आ गए, कुफ्र व शिर्क, खिदमत व जलालत और हर किस्म की गुमराहियों को जबरदस्त शिकस्त हुई, शकावत व बदबख्ती का मौसम बदल गया। जुुल्म व फसाद को जोर खत्म हो गया। हक व सदाकत और खैर व सआदत ने आलमगीर फतेह पाई और जमीन पर अम्न व अमान कायम हो गया।
जिस वक्त दुनिया में नबी (सल0) ने अपना पहला कदम रखा था वह रबी अव्वल ही का महीना था और फिर जब आप की उम्र चालीस बरस की हुई तो इसी महीने में दुनिया की इस्लाह का काम आप के सुपुर्द हुआ। इस लिहाज से कहा जा सकता है कि रबी अव्वल ही इस रहमते आम्मा के जुहूर का मुब्दा और रूहानी खैरात व बरकात के वफूर का मंबा है और यही वजह है कि जब यह मुबारक महीना आता है तो मुसलमानों के दिलों में यहां तक कि उनके दिलों में भी जो दूसरे मौसमों में बिल्कुल गाफिल रहते हैं इस मुकद्दस वजूद की याद ताजा हो जाती है और तरह-तरह की खुशियों का इजहार किया जाता है।
नोमाएइलाही की याद से खुश होना बुरी चीज नहीं बल्कि शरीअत की हुदूद से पार न जाया जाए तो एक दर्जा में महमूद है। लेकिन आज मुझे अर्ज करना यह है कि आप जश्न की इन घडि़यों और शादमानी के इन पलों में उस काबिले मातम हकीकत को क्यों भूल जाते हो कि इस मुकद्दस व मसूद वजूद ने इस मुबारक महीने में आकर आपको जो कुछ दिया था आज आप अपनी शामते आमाल से सब कुछ खो चुके हैं।
रबी अव्वल अगर आप के लिए खुशियों का मौसम और मसर्रतों का पैगाम है तो सिर्फ इसलिए कि इस महीने में दुनिया की खजां जलालत को बहारे हिदायत ने आखिरी शिकस्त दी थी और इसी महीने में नबी करीम (सल0) दुनिया में आए थे जिन्होंने तुम पर रूहानियत के दरवाजे खोल दिए और वह सारी नेमतें तुम को दिलवा दी जिनसे तुम महरूम थे फिर अगर आज तुम उन की लाई हुई शरीअत से दूर और उन की दिलाई हुई नेमतों से महरूम होते जा रहे हो तो क्या वजह है कि पिछले बहार की खुशी तो मनाते हो लेकिन खिजां की मौजूदा पामालियों पर नहीं रोते।
तुम रबी अव्वल में आने वाले के इश्क का दावा रखते हो और उसकी याद के लिए मजलिसे मुनअकिद करते हो लेकिन यह नहीं सोंचते कि तुम्हारी जबान जिस की याद का दावा कर रही है उसकी फरामोशी के लिए तुम्हारा हर अमल गवाह है और जिस की ताजीम व तकसीम का तुम को बड़ा फख्र है तुम्हारी गुमराहाना जिंदगी बल्कि तुम्हारे वजूद से उसकी इज्जत को बट्टा लग रहा है।
अगर तुम्हारे इस इश्क व मोहब्बत के दावे में कोई सदाकत होती और तुम को हकीकत में उनसे गुलामी का थोड़ा सा भी ताल्लुक होता तो तुम्हारी दीनी हालत हरगिज इस कदर तबाह न होती। तुम नमाज के आदी होते और जकात पर आमिल, तकवा तुम्हारा काम होता और सुन्नत की पैरवी तुम्हारा तुर्रा-ए-इम्तियाज होता और तुम हराम व हलाल में फर्क करते बल्कि शुब्हात के मौके से भी बचते, तुम्हारी जिंदगी नमूना होती सहाबा का और तुम्हारा हर अमल मुरक्का होता इस्लाम का।
अब जबकि तुम्हारा यह हाल नही है और तुम अपने दिलों से पूछों वहां से यही जवाब मिलेगा कि हां नहीं है, तो फिर यकीन करो कि रबी अव्वल के मौके पर तुम्हारी यह इश्क व मोहब्बत की नुमाइश सिर्फ फरेब नफ्स है जिसमें तुम खुद मुब्तला हो सकते हो या तुम्हारे जाहिर में दोस्त व अहबाब, खुदावंद अलीम व खबीर तुम्हारे इस फरेब में नही आ सकता और न ही उसके रसूल (सल0) को तुम उन हकीकत से खाली मुजाहिरे से द्दोका दे सकते हो।
इसलिए मै तुम से कहता हूं और अल्लाह पाक की कसम सिर्फ तुम्हारी खैरख्वाही के लिए कहता हूं कि तुम अपनी इन रस्मी मजलिसों की आराइश से पहले अपने उजड़े हुए दिल की खबर लो और कंदीलों के रौशन करने के बजाए अपने दिलों को ईमान की रौशनी से रौशन करने की फिक्र करो।
तुम गैरों की तकलीद में नकली फूलों के गुलदस्ते सजाते हो मगर तुम्हारी हस्नात का जो गुलशन उजड़ रहा है उसकी हिफाजत और शादाबी का कोई इंतजाम नहीं करते। तुम रबी अव्वल की बरकतों और रहमतों का तसव्वुर करके खुशी के तराने गाते हो लेकिन अपनी इस बर्बादी पर मातम नहीं करते कि तुम्हारा खुदा तुम से रूठा हुआ है। उसने तुम्हारी बद आमालियों से नाराज होकर अपनी दी हुई नेमतों को तुम से छीन ली है तुम आका से गुलाम, हाकिम से महकूम, गनी से मुफलिस, जरदार से बेजर बल्कि बेघर हो चुके हो। तुम्हारे ईमान का चिराग टिमटिमा रहा है और तुम्हारे नेक आमाल का फूल मुरझा रहा है और गजब यह है कि तुम गाफिल हो।
क्या इस महरूमी और मगजूबी की हालत में भी तुम को हक पहुंचता है कि रबी अव्वल में आने वाले दीन व दुनिया की नेमतें लाने वाले रहमतुल आलमीन (सल0) की आमद की यादगार में खुशियां मनाओ। बकौल अल्लामा अबुल कलाम आजाद-क्या मौत और हलाकी को इसका हक पहुंचता है कि जिंदगी और रूह का अपने को साथी बताए? क्या एक मुर्दा लाश पर दुनिया की अक्लें न हंसेगी अगर वह जिंदों की तरह जिंदगी को याद करेगी? हां यह सच है कि आफताब की रौशनी के अन्दर दुनिया के लिए बड़ी खुशी ही खुशी है लेकिन अंद्दे कोकब जेब देता है कि वह आफताब के निकलने पर आंख वालों की तरह खुशियां मनाए।
इसलिए ऐ गफलत में पड़े लोगों! तुम्हारी गफलत पर हसरत और तुम्हारी सरशारियों पर अफसोस अगर तुम इस मुबारक महीने की अस्ली इज्जत व हकीकत से बेखबर हो और सिर्फ जबानों के तराने और दीवार की आराइशों और रौशनी की कंदीलों ही में इसके मकसदे यादगारी को गुम कर दो, तुम को मालूम होना चाहिए कि यह मुबारक महीने की बुनियाद का पहला दिन है। खुदावंदी बादशाहत के कयाम का अव्वलीन एलान है। खिलाफत अरजी व विरासते इलाही की बख्शियत का सबसे पहला महीना है। इसलिए इसके आने की खुशी और इसका तजकिरा व याद की लज्जत यह उस शख्स की रूह पर हराम, जो अपने ईमान और अमल के अन्दर उस पैगामे इलाही की तामील व इताअत और नमूने की तासी और पैरवी के लिए कोई नमूना नहीं रखता।
हज़रत मोहम्मद (सल0) के अच्छे अख़लाक
मोहम्मद मुस्तफा (सल0) सबसे पहले नबी हैं आप आखिरी नबी हैं और आप उम्मुल किताब के हामिल हैं। आप(सल0) साहबे मेराज हंै आप शाफये महशर हैं। आप साहिबे अजवाज व औलाद हैं आप फातहे आलम हैं, आप मुत्तकी थे, आप साबित कदम और मुस्तकिल मिजाज थे, आप साहिबे जेहाद थे, आप(सल0) वक्त के पाबंद थे, ताजिर थे, मेहमान नवाज थे, हौसला और अज्म की मिसाल थे, शर्म व हया की तस्वीर थे, सादा मिजाज थे, बच्चो, बड़ो, गुलामों, गरीबों, औरतों व गैर इंसानी तबकों पर एक सी मोहब्बत और मेहरबानी करते थे। आप (सल0) को दुनिया में सबसे ज्यादा जो चीज पसंद थी वह नमाज और खुश्बू थी। इन सबसे बढ़कर आप (सल0) को अपनी उम्मत प्यारी थी। आप (सल0) हमेशा बीवी बच्चों का, बुजुर्गो का, रिश्तेदारों का, पड़ोसियों का, यतीमों का, मेहमानों का, बीमारों का, गुलामों का, इंसानी बिरादरी का यहां तक कि जानवरों के हुकूक का ख्याल रखते थे। आप (सल0) को आदाबे मजलिस में, खाने पीने में, बात-चीत करने में, सफर में, बैठने उठने में, सोने-जागने में, लिबास के पहनने में, इबादत में गरज कि हर चीज में आदाब का ख्याल दिल में रहता था। आप (सल0) एक ही वक्त में नबी भी थे रसूल भी थे, सरदार भी थे, हाकिम भी थे, मुंसिफ भी थे, अमीन भी थे, सादिक भी थे, आबिद भी थे, मुतवक्कल भी थे। इस तरह अगर आप (सल0) के औसाफ व अच्छे एखलाक को लिखा जाए तो यह सिलसिला खत्म नहीं हो सकता। यूं तो तमाम आलिमों का परवरदिगार और तारीफों का मालिक अल्लाह खुद आप (सल0) की तारीफ फरमाता है तो हम जैसे गुनाहगार बन्दों की क्या मजाल कि उस जात-ए-पाक की तारीफ कर सकें।
शर्म व हयाः- आप (सल0) की शर्म व हया का यह आलम था जिसके मुताल्लिक सहाबा कराम फरमाते हैं कि आप (सल0) एक पर्दा करने वाली क्वारी लड़की से भी ज्यादा शर्मीले थे।
वादे के पाबंद:- हजरत नबी करीम (सल0) वादे के बहुत पाबंद थे। जो वादा करते वह पूरा करते। लिहाजा अब्दुल्लाह बिन हमस सहाबी फरमाते हैं कि मैंने हुजूर (सल0) से एक सौदा किया और कुछ देर बाद उसी जगह मिलने का वादा करके चला गया। जो मुझे याद नहीं रहा। तीन दिन के बाद जब मैं वहां पहुंचा तो आप (सल0) उसी जगह इंतजार में थे जब मुझे देखा तो सिर्फ इतना कहा तुम ने तकलीफ दी मैं तीन रोज से इसी जगह पर तुम्हारे इंतजार में हूं।
एहसान:- नबी करीम (सल0) का दुनिया में तश्रीफ लाकर अपनी मुबारक तालिमात से अरब बल्कि तमाम अहले दुनिया को जलालत व गुमराही से निकालकर हिदायत की राह पर डालना और उनके दिलों एखलाक व आमाल को बुराइयों से पाक कर देना और गुलाम को आका और आकाओं के आका बना देना। लड़कियों को जिंदा दफन करने से बचा लेना, महरूम व मजलूम औरतों को उनके जायज हुकूक दिलवाना, गुलामी की मनहूसियत को हमेशा के लिए इंसानों के सर से उतार देना, बेगानों से अच्छे सुलूक से खुद पेश आना, इसके अलावा इंसानों को उसकी तालीम से आरास्ता कर देना। गरज कि आप (सल0) की जिंदगी का यह कारनामा दुनिया इंसानियत बल्कि सारी खिलकत पर एक अजीम एहसान है। तवाजो सादगी और बेतकुल्लफी आप (सल0) लोगों को खुद पहले सलाम करते। हर छोटे-बड़े के साथ खुशी से बातचीत करते, जब किसी से मुसाफेहया करते तो जब तक दूसरा शख्स खुद हाथ नहीं छोड़ता आप (सल0) थामें रहते। जब सदका देते तो खुद अपने हाथ से मिस्कीनों को दिया करते। आप (सल0) सहाबा कराम की मजलिस में जाते तो पीछे ही बैठ जाते और अपना काम अपने हाथों से कर लिया करते थे। किसी पर कोई सख्ती नहीं करते। खुद बाजार जाते और अपना सामान खुद ही उठाकर लाते। आप (सल0) ने मदीने मुनव्वारा की मस्जिद की तामीर और खन्दक की खुदाई के कामों में खुद भी अमली तौर से हिस्सा लिया है। आप (सल0) का लिबास तमाम लोगों की तरह बिल्कुल सादा होता। दौलत और हुकूमत की तरह बड़े मकानों के बजाए मामूली मकानों में रहते, अपने ही हाथ से अपने कपड़े और जूते ठीक किया करते थे। अपने ऊंट को आप (सल0) खुद ही बांधते थे और अपने खादिम के साथ बेतकल्लुफी के साथ खाना खा लिया करते थे। मुसीबत जदा लोगों और मोहताजों की मदद करते।
फसाहत व बलागत:- आप (सल0) का अंदाजे बयान इतना आसान और दिलकश समझाने वाला और ऐसा निराला व मोजिजाना था कि उसकी मिसाल किसी नसीहत करने वाले के कलाम में नहीं मिलती। आप (सल0) फसाहत व बलागत के मम्मबा (श्रोत) आप (सल0) का हर लफ्ज मानी का समन्दर था और हर कलमा हकायक से लबरेज, हर कौल हुकूमतों का सर चश्मा और हर जुमला फसाहत व बलागत का एक दरिया था। आप (सल0) का सुनने वाला चाहे वह मुल्क के किसी भी इलाके का रहने वाला क्यों न हो आप (सल0) का चाहने वाला बन जाता। और उसको मानना पड़ता कि हुजूर (सल0) फसाहत व बलागत के इमाम हैं। आप (सल0) रूक-रूक कर साफ कलाम करते। अहले अरब को अपनी फसाहत व बलागत पर बहुत नाज था और लाजवाब अशआर को खाना-ए-काबा की दीवारों पर लटका दिया करते थे। लेकिन आप (सल0) की फसाहत व बलागत के जौहर देख कर दंग रह जाते थे हजरत अबू बक्र सिद्दीक (रजि0) हुजूर (सल0) की फसाहत व बलागत पर हैरत करते थे। इसलिए आप (सल0) फरमाते हैं कि मैने अरब की हर गली, कूचा और बाजार में घूमते हुए तमाम फसीह व बलीग कलाम सुना है लेकिन आप (सल0) की फसाहत व बलागत के मुकाबले में वह सब बहुत नीचे हैं।
बहादुरी:- हजरत (सल0) की जिंदगी का बहादुरी का दौर बचपन से वफात तक आप (सल0) की शुजाअत के जवाहर के नमूने रौशन रहे हैं। बचपन में जब आप (सल0) को बुतों की कसम खाने पर मजबूर किया गया कि आप (सल0) ने फरमाया कि मेरे सामने उनका नाम ना लो, मुझे उनसे सख्त नफरत है। एक मर्तबा जब आप (सल0) चचा अबु तालिब के साथ सीरिया के सफर पर गए तो काफिले को एक ऐसी वादी से गुजरना था जिसमें पानी भरा हुआ था काफिले के लोग खौफजदा हो गए लेकिन आप (सल0) ने कदम बढ़ाया और सबको पीछे-पीछे आने की हिदायत करके वादी को काफिले के साथ पार कर लिया। हजरत अली (रजि0) फरमाते हैं कि आहजरत (सल0) से ज्यादा दुश्मन का मुकाबला करने वाला कोई न था। जब ज्यादा खौफनाक सूरत अख्तियार कर जाती और हंगामा मच जाता तो हम आपकी ही आड़ लेते। एक रात मदीने के लोग एक अजनबी आवाज से घबरा गए। कुछ लोग आवाज की जानिब दौड़े तो देखते हैं कि आप (सल0) घोड़े पर सवार वापस आ रहे हैं। लोगों के पहुंचने से पहले ही आप (सल0) आवाज का पता लगाने निकल चुके थे। वापस आकर आप (सल0) ने लोगों से कहा घबराओ नहीं।
हक की बात कहना:- आप(सल0) हक की बात कहने से कभी बाज न आए और न दुनिया की कोई चीज इससे आपको रोक सकी। अगरचे इससे रोकने के लिए आपके पास माल व दौलत, सोना, चांदी, जवाहरात, बड़ी इमारतें, हुकूमतें और खूबसूरत औरतों तक की पेशकश की गई लेकिन आप (सल0) ने उनकी तमाम पेशकश को ठुकरा दिया और कहा कि मैं हक की तरफ से आया हूूं, हक की बात कहना मेरा काम है सफा और मरवा के बराबर सोने और चांदी के ढेर भी मेरे सामने लाकर रख दिए जाएं तो भी मैं हक बात कहने से बाज नहीं रह सकता। आप (सल0) ने हर मामले और हर मरहले में हक गोई से काम लिया।
बूढ़ों के साथ नबी
करीम (सल0) का करीमाना सुलूक
मुरझाया हुआ चेहरा, सफेद दाढ़ी, हाथ में लाठी, चाल में सुस्तरवी, लड़खड़ाती जबान यह समाज का वह कमजोर तबका है जिसे हम बूढ़ों के नाम से जानते हैं। इंसानी जिंदगी कई मरहलों से गुजरते हुए बुढ़ापे को पहुंचती है। बुढ़ापा गोया इख्तितामे जिंदगी का परवाना है। इख्तितामी मरहले हंसी खुशी से पूरे हों तो उससे दिली तसल्ली भी होती है। रहन-सहन में दुश्वारी भी नहीं। लेकिन आज जो सूरतेहाल बूढ़े लोगों के साथ रवा रखी गई है उससे ऐसा महसूस नहीं होता कि बूढ़े लोग अपनी तबई उम्र भी पूरी कर सकेंगे। हालांकि वालिद ने बच्चे की परवरिश इस उम्मीद पर की थी कि वह बुढ़ापे में वालिद का सहारा होगा। बजाए इसके कि यह लड़का बूढ़े बाप की लाठी बनता बूढ़े वालिद की कमजोर कमर को सहारा देता, रही-सही लाठी व कमर को भी तोड़ देता है। एक तरफ समाज की यह सूरतेहाल है दूसरी तरफ नबी करीम (सल0) का नमूना कि आप (सल0) ने बूढ़ों के साथ कमजोरो के साथ, बूढ़ों के साथ बहुत ही ज्यादा हुस्ने सुलूक का मुजाहिरा किया जहां आप (सल0) ने अपनी तालीमात के जरिए बूढ़े लोगों की कद्रदानी की तालीम दी वही आप (सल0) ने अपने अमल के जरिए कद्रदानी का सबूत भी मुहैया फरमाया। आप (सल0) ने बूढ़े लोगों की अहमियत बयान करते हुए इरशाद फरमाया- अल्लाह तआला की अजमत व बड़ाई का तकाजा यह है कि बूढे मुसलमान का इकराम किया जाए। (अबू दाऊद) एक मौके पर आप (सल0) ने फरमाया- जिस शख्स के बाल इस्लाम की हालत में सफेद हुए हो उसके लिए कयामत के दिन नूर होगा। (तिरमिजी) इन अहादीस से बूढ़े लोगों की अहमियत का बखूबी अंदाजा होता है। अपने जिक्र में आप (सल0) ने बूढ़े को हामिल कुरआन व आदिल बादशाह पर भी मुकद्दम किया है। हालांकि इन दोनों की अहमियत व अजमत अपनी जगह पर मुसल्लम है इसके बावजूद आप (सल0) ने बूढ़ों की रियायत करते हुए उनकी हिमायत फरमाई। दूसरी हदीस में बुढ़ापे के असरात का उखरवी फायदा बयान किया कि जिसपर बुढ़ापा इस्लाम की हालत में आया हो तो उसके लिए अल्लाह बुढ़ापे की कद्रदानी करते हुए रोजे महशर में नूर मुकद्दर फरमाएंगे। आप (सल0) ने बूढ़ों का इकराम व एहतराम करने की तलकीन करते हुए फरमाया- छोटा बड़े को सलाम करे। (बुखारी) बड़ों के इकराम व एहतराम की एक शक्ल सलाम भी है। बड़ों की उम्र और उन की बुजुर्गी का लिहाज करते हुए छोटे ही बड़ों को सलाम किया करे ताकि यह सलाम छोटो की जानिब से बड़ों के इकराम का जज्बा भी जाहिर करे और बड़ों के लिए भी दिल बस्तगी का सामान हो। कई मकामात पर बड़ों को बच्चों से इसी बात की शिकायत होती है कि बच्चे उन्हें सलाम नहीं करते। फितरी तौर पर बड़े इज्जत के तालिब होते हैं क्यों न हम उनके इस तकाजे का लिहाज करते हुए सलाम के जरिए उनकी तबियत को खुश करें। मजालिस में कोई मशरूब आए तो उसमें आप (सल0) ने इस बात का लिहाज किया उस को अव्वल बड़े नोश फरमाएं, बड़ों से आगाज हो। फरमाया- बड़ों से आगाज करो। आप (सल0) ने एक बार मिसवाक करते हुए दो में से बड़े को पहले मिसवाक इनायत फरमाई। (अबू दाऊद) आप (सल0) ने बड़ों की अहमियत उजागर करते हुए फरमाया- बरकत तो तुम्हारे बड़ों के साथ है।
कौन है जो बरकत का मतलाशी न हो? कौन है जो बरकत का तलबगार न हो? आज तो कई एक बेबरकती के शाकी है। ऐसे में बरकत के हुसूल का आसान तरीका यह है कि बूढ़ों को अपने साथ रखा जाए। उनके खर्चों की किफालत की जाए इससे आमदनी में बरकत होगी और एक मौके पर फरमाया- बातचीत में भी बड़ों को मौका दिया। इसकी तशरीह करते हुए यहया ने फरमाया- बाचतीत का आगाज बड़े लोगों से हो (बुखारी) एक मौके पर बूढ़ों के इकराम के फजायल व फायदे जिक्र करते हुए आप (सल0) ने फरमाया- जिस नौजवान ने किसी बूढ़े का इकराम उसकी उम्र की बुनियाद पर किया तो अल्लाह तआला उसके लिए बुढ़ापे में इकराम करने वाला शख्स मुकर्रर फरमाएंगे। (तिरमिजी) कौन है जो अपने बुढ़ापे को हंसी-खुशी पूरा नहीं करना चाहता? कौन है जो बुढ़ापे में खिदमत गुजारों से कतराता है? कौन है जो बुढ़ापे में आराम, सुकून व चैन नहीं चाहता? इन सब के लिए आप (सल0) ने एक आसान नुस्खा इनायत फरमाया कि अपने बूढ़ों का इकराम करो तुम्हें बुढ़ापे में खिदमत गुजार मिल जाएंगे। गरज कि मुख्तलिफ मौकों पर मुख्तलिफ अंदाज से आप (सल0) ने बूढ़ों की अहमियत व अजमत को वाजेह किया और उम्मत को इनपर ध्यान देने की तालीम दी। यह आप (सल0) के करीमाना अखलाक है कि उम्मत के हर कमजोर तबका पर बजाते खुद भी रहम व करम का मामला किया औरों को भी रहम व करम से पेश आने की तलकीन की।
बड़ो के साथ आप (सल0) का तर्जेअमल:- एक बूढ़ा आप (सल0) की मजलिस में हाजिर हुए। आने वाले के लिए लोगों ने मजलिस में गुंजाइश न पैदा की। आप (सल0) ने इस सूरतेहाल को देखकर सहाबा से मुखातिब होकर फरमाया- जो शख्स छोटो पर शफकत न करे बड़ो की इज्जत न करे वह हम में से नहीं। (तिरमिजी) यानी एक मुसलमान मे जो सिफात होनी चाहिए उनमें से एक बड़ों का इकराम भी है। अगर कोई इस अहम इस्लामी सिफत का तलबगार है तो उसे बड़ों के इकराम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए। फतेह मक्का के बाद जो हैरत अंगेज वाक्यात पेश आए उन्हीं मे एक अहम वाक्या हजरत अबू बक्र सिद्दीक के बूढ़े वालिद का भी पेश आया। लोगों ने आप के दस्तेहक पर इस्लाम कुबूल करने के लिए उन्हें आप की मजलिस में हाजिर किया। आपने उनके बुढ़ापे को देखते हुए फरमाया- इन को घर ही में क्यों न छोड़ा? मैं ही खुद उनके घर पहुंच जाता।
वाजेह रहे कि आप मक्का में फातेह बनकर दाखिल हो रहे हैं इसके बावजूद बूढ़ों के साथ आप का यह रहीमाना करीमाना सुलूक है। हालांकि दीगर फातेहीन का तर्जेअमल तो वह है जिसे कुरआन ने बयान किया है कि जब फातेहीन किसी बस्ती में दाखिल होते है तो उस बस्ती को बर्बाद कर देते हैं अहले इज्जत को जलील करना उनका तर्जेअमल होता है। (अल नमल-34) यह बूढ़े लोगों की अमली कद्रदानी है जिसका आप सबूत फराहम कर रहे हैं। आप (सल0) ने उनकी ताजीम करते हुए यह तसव्वुर न किया कि अबू कहाफा एक लम्बे अर्से तक कुफ्र की हालत में रहे अब कुफ्र मगलूब हुआ तो वह मुसलमान हो रहे हैं। कई बार इंसान साबिका इख्तिलाफ की वजह से किसी की ताजीम व तकरीम से कतराता है। हालांकि इसमें उन लोगों के लिए नमूना है कि बूढ़े की बहर सूरत ताजीम की जाए। नमाज के आप (सल0) इंतिहाई हरीस के बावजूद भी बूढ़ों की रियायत में नमाज में तखफीफ फरमा दी। अबू मसूद फरमाते हैं कि एक बार एक सहाबी आप (सल0) की खिदमत में हाजिर होकर शिकायत करने लगे कि मैं जुहर की नमाज में फलां शख्स की तवील किरात की वजह से हाजिर नहीं हो सकता। अबू मसूद कहते हैं कि मैंने इस मौके पर आप (सल0) को जिस गजबनाक कैफियत में देखा इससे पहले कभी नहीं देख। फिर आप (सल0) सहाबा से मुखातिब होकर इरशाद फरमाया- नमाजियों में नमाज से नफरत मत पैदा करो। लिहाजा जो भी शख्स इमामत करे वह हल्की नमाज पढ़ाया करे क्योंकि इसमें कमजोर भी हैं बूढ़े भी हैं जरूरतमंद भी है। (बुखारी) एक और मौके पर आप (सल0) से तवील किरात की शिकायत की गई तो आप (सल0) ने हजरत मआज पर गुस्सा होते हुए फरमाया- ऐ मआज! क्या तुम लोगों को फितना में डालने वाले हो। तीन बार आप (सल0) ने इन कलमात को दुहराया। गौर व खौज का मकाम है कि बूढ़े लोगों की रियायत का सिलसिला नमाज जैसे अहम फरीजे में भी जारी है। बुढि़या का मशहूर वाक्या जिसमें आप (सल0) ने बुढि़या का सामान उठाकर शहर मक्का के बाहर पहुंचा दिया था। हालांकि वह बुढि़या जो इस्लाम से किनाराकशी अख्तियार करते हुए आप (सल0) के खिलाफ बदजुबानी मे मसरूफ थी। लेकिन आप (सल0) की खिदमत के तुफैल में उस बुढि़या ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था। एक बार मजलिस में बाएं जानिब अकाबिर तशरीफ फरमा थे और दाएं जानिब एक बच्चा था और मजलिस में कोइ मशरूब पेश हुआ तो आप (सल0) ने उस बच्चे से इजाजत चाही कि चूंकि दाएं जानिब हो अगर तुम इजाजत दो तो मैं इसका आगाज उस बूढ़े सहाबा से करूं। उस बच्चे ने अपने आप पर किसी को तरजीह देने से इंकार कर दिया। इसलिए आप (सल0) ने वह मशरूब उसी के हाथ में थमा दिया। (बुखारी) गौर तलब बात है कि आप (सल0) बाएं जानिब बड़ों की मौजूदगी के बावजूद इस बात की कोशिश की कि मशरूब का आगाज बड़ों से हो। इसके लिए बच्चे से इजाजत भी मांगी लेकिन यह बच्चे की सआदतमंदी थी कि उसने आप (सल0) के नोश कर्दा को अपने आप पर किसी को तरजीह न दी। इससे भी बड़ो के साथ इकराम का सबक मिलता है कि बहरसूरत उनके इकराम की कोशिश की जाए उनकी तौहीन से बेजारगी का इजहार हो।
तंकीद न करें
वह दोस्त की गाड़ी में सवार हुआ तो छूटते ही बोला -‘‘तुम्हारी गाड़ी कितनी खटारा है?’’ उसके घर गया तो सामाने आराइश देखकर कहा-‘‘ ओह! तुमने घर का सामान नहीं बदला।’’ उसके बच्चे देखे तो बोला -‘‘माशाअल्लाह! कितने प्यारे बच्चे हैं। तुम इन्हें इससे ज्यादा खूबसूरत कपड़े नहीं पहना सकते?’’ बीवी ने खाना पेश किया। बेचारी ने घंटो बावर्ची खाने में ठहर कर खाना तैयार किया था। वह बोला-‘‘ तुम ने चावल क्यों नहीं पकाए? और नमक कम है। यह डिश तो मुझे जरा भी पसंद नहीं।’’ फलों की दुकान पर जाता है। दुकान किस्म किस्म के फलों से भरी पड़ी है। वह पूछता है-‘‘आम मिलेंगे?’’ दुकानदार जवाब देता है -‘‘ जी नहीं, आम गर्मियों में होता है।’’ वह पूछता है-‘‘ तरबूज होगा?’’ दुकानदार -‘‘नहीं’’ वह गुस्से में लालपीला होकर कहता है-‘‘आप के पास कोई चीज नहीं तो यह दुकान क्यों खोल रखी है?’’ और यह भूल जाता है कि दुकान में फलों की चालीस से ज्यादा किस्मे मौजूद हैं।
कुछ लोग तंकीद करके आप को परेशान कर देेते हैं। नामुमकिन है कि उन्हें जल्दी कोई चीज पसंद आ जाए। मजेदार खाने में उन्हें सिर्फ वह बाल नजर आता है जो अनजाने में गिर पड़ा था। साफ कपड़ों में उन्हें सिर्फ स्याही का वह हल्का धब्बा ही दिखाई देता है जो गलती से लग गया है। मुफीद किताब में उन्हें कहीं से पूू्रफ की गलती नजर आ जाती है उसकी तंकीद से कोई नहीं बच सकता।
मैं एक शख्स को जानता हूं जो सेकण्ड्री और यूनिवर्सिटी के दिनों में लम्बे अर्से तक मेरा हम जमाअत रहा है हमारे ताल्लुकात अब भी कायम है। मुझे नहीं याद कि उसने आज तक किसी चीज की तारीफ की हो। मैंने उससे अपनी किताब के बारे मे पूछा जिसकी लोगों ने बड़ी तारीफ की और उसके सैकड़ों हजारों नुस्खे अब तक निकल चुके हैं। उसने सर्दमेहरी से कहा- अच्छी किताब है लेकिन इसमें फलां वाक्या गैर मुनासिब है। प्वाइंट का साइज भी मुझे पसंद नहीं आया, छपाई भी घटिया किस्म की है और......।’’
एक दिन मैंने उससे पूछा कि फलां का अंदाजे तकरीर कैसा है? उसने मुकर्रिर का कोई अच्छा पहलू बयान न किया। वह मुझ पर बहुत नाराज हो गया। अब मैं किसी भी चीज के मुताल्लिक उसकी राय नहीं पूछता।
कुछ लोग मिसालियत का शिकार होेते हैं। ऐसा शख्स चाहता है कि उसकी बीवी चैबीस घंटे घर को शीशे की तरह चमका कर रखे और उसके बच्चे सारा दिन साफ सुथरे अटेंशन रहे, मेहमान आएं तो उन्हें बेहतरीन खाना मिले, बीवी के पास बैठे तो वह उससे खूबसूरत बाते करें, तल्खी पैदा न करे। बच्चे भी हमेशा उसकी हां मे हां मिलाएं, अपने दोस्तों से और गली मोहल्ले, सड़क बाजार में मिलने वाले हर शख्स से वह यही चाहता है कि उसका रवैया सौ फीसद ठीक ठाक हो। उनमें से कोई जरा सी भी कोताही करे तो वह अपनी तेज, धारदार जबान से बेजा तंकीद करता और कदम कदम पर नुक्ताचीनी से दूसरों को बदमजा करके रख देता है। लोग उससे उकता जाते हैं क्योंकि उसे सफेद अबरक सहीफो में सिर्फ स्याह द्दब्बे ही दिखाई देते हैं। जिस शख्स की यह हालत है उसने दरअस्ल अपने आप को अजाब में डाल रखा है। करीबी रिश्तेदार भी उससे कतराते और उसकी सोहबत को सकील समझते हैं। किसी शायर ने खूब कहा है- ‘‘ तुम हर बार कड़वा पानी पीने से इंकार करोगे तो प्यासे रह जाओगे और कितने लोग हैं जिन्हे ंसाफ पानी मिलता है।’’ ‘‘तुम हर काम में अपने रफीक पर नुक्ता चीनी करोगे और उसे डांट पिलाओगे तो याद रखो एक वक्त ऐसा आएगा जब तुम्हारी डांट बरदाश्त करने वाला कोई नहीं होगा।’’
अल्लाह तआला भी इरशाद फरमाते हैं-‘‘ और जब तुम बात करो तो अदल व इंसाफ से काम लो।’’
आयशा सिद्दीका (रजि0) नबी करीम (सल0) का घर वालों से रवैया बयान करते हुए कहती हैं -‘‘ नबी करीम (सल0) ने कभी किसी खाने में ऐब नहीं निकाला। भूक होती तो खा लेते वरना छोड़ देते।’’ जी हां! नबी करीम (सल0) ने कभी किसी चीज को अपनी अना का मसला नहीं बनाया।
हजरत अनस (रजि0) का बयान है-‘‘ मैंने नौ साल नबी करीम (सल0) की खिदमत की। मुझे मालूम नहीं कि मैंने कोई काम किया हो और आपने पूछा हो कि तुमने ऐसा क्यों किया। मुझ पर आपने कभी नुक्ता चीनी नहीं की और न कभी आप ने मुझे उफ कहा।
नबी करीम (सल0) ऐसे ही थे और हमें भी ऐसा ही होना चाहिए। यहां यह वजाहत करनी जरूरी है कि मैं खुदा न ख्वास्ता नसीहत न करने और गलतियां देखकर खामोश रहने की दावत नहीं दे रहा लेकिन हर चीज में और खासतौर से दुनियावी मामलात में दकीकासंज न बनने और हालात के मुताबिक ढलने की कोशिश कीजिए। आपके घर मेहमान आता है आप उसे चाय पेश करते हैं वह प्याली में झांक कर कहता है आप ने प्याली क्यों नहीं भरी। आप कहते हैं कि कुछ और चाय डाल दूं। वह कहता है नहीं नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं। वह पानी मांगता है। आप पानी का गिलास हाजिर करते हैं। वह पानी पीकर कहता है पानी ठंडा नहीं था। फिर वह एयरकंडीशनर की तरफ ध्यान ले जाता है- यह एसी ठंडक नहीं करता। और गर्मी का रोना रोने लगता है। बताएं ऐसे इंसान का वजूद आप के लिए गिरां नहीं होगा और आप तमन्ना नहीं करेंगे कि वह आप के घर से निकल जाए और फिर कभी वापस न आए।
साबित हुआ कि लोग ज्यादा तंकीद पसंद नहीं करते लेकिन आप किसी जगह समझते हो कि यहां तंकीद की जरूरत है तो उसे खुशनुमा गिलाफ मंे लपेट कर दूसरों के सामने पेश कीजिए। आम लफ्जों में या मश्विरे के अंदाज में तंकीद न करें।
नबी करीम (सल0) जब किसी की गलती देखते तो मुंह पर उसका इजहार न करते बल्कि कहते कुछ लोगों को क्या है कि वह ऐसा और ऐसा करते हैं। एक दिन तीन गर्म जोश नौजवान मदीना आए। वह नबी करीम (सल0) की इबादत और नमाज की कैफियत के मुताल्लिक जानना चाहते थे। उन्होंने पाक बीवियों से आप की इबादत के मुताल्लिक पूछा। उन्होंने उन्हें बताया कि आप (सल0) कभी रोजा रखते हैं और कभी नहीं रखते। रात का कुछ हिस्सा सोते हैं और कुछ हिस्सा नमाज पढ़ते हैं। उन्होंने एक दूसरे से कहा- यह नबी करीम (सल0) हैं। अल्लाह ने उनके अगले पिछले गुनाह माफ कर दिए हैं। यह कहकर तीनों ने एक एक फैसला किया। एक ने कहा- मैं कभी शादी नहीं करूंगा। दूसरे ने कहा- मैं हमेशा रोजे रखूंगा। तीसरे ने कहा- मैं रात को आराम के बजाए हमेशा कयाम करूंगा। उन तीनों की यह बात नबी करीम (सल0) को पहुंची। आप फौरन मिम्बर पर तशरीफ फरमा हुए। अल्लाह की हम्द व सना बयान की और फरमाया- चंद लोगों को क्या हो गया है। उन्होनंे यह और यह बाते की हैं। लेकिन मैं तो नमाज पढ़ता हूं और आराम भी करता हूं। रोजे रखता हूं और नहीं भी रखता। मैं औरतों से शादी भी करता हूं जिनसे मेरी सुन्नत से किनाराकशी की वह मुझ से नहीं। एक और मौके पर नबी करीम (सल0) ने महसूस किया कि कुछ नमाजी नमाज के दौरान आसमान की तरफ देखते हैं। यह गलती थी क्योंकि कायदा यह है कि नमाज के दौरान सजदागाह पर नजर रखी जाए। आप (सल0) ने फरमाया- चंद लोगों को क्या मुश्किल है वह नमाज के दौरान आसमान की तरफ देखते हैं। इस पर भी लोग बाज न आए तो आप ने उनके नाम लेकर तवज्जो दिलाने के बजाए सिर्फ इतना कहा- यह लोग इस काम से बाज आ जाएं वरना उनकी निगाहें उचक ली जाएंगी।
मदीना में लौंडी बरीरा थी जो आजाद होना चाहती थीं। उसने अपने आका से इस बारे में बात की। आका ने कुछ रकम अदा करने की शर्त लगाई। बरीरा हजरत आयशा (रजि0) के पास आई और उनसे इस सिलसिले मे मदद की तालिब हुईं। हजरत आयशा (रजि0) ने कहा- तुम चाहो तो मैं तुम्हें रकम दे दूंगी और तुम आजाद हो जाना लेकिन आजादी की निस्बत मेरी होगी।
बरीरा ने अपने आका से बात की तो उसने इंकार कर दिया। उसका इरादा था कि वह दोनों तरफ से फायदा उठाए। आजादी की कीमत भी हासिल करे और निस्बत भी। हजरत आयशा (रजि0) ने नबी करीम (सल0) से दरयाफ्त किया तो आप को ताज्जुब हुआ कि बरीरा का आका कितना लालची है। बेचारी लौंडी को आजाद होने से रोक रहा है। आप ने हजरत आयशा से कहा- तुम उसे खरीद कर आजाद कर दो। आजादी की निस्बत उसी की होती है जो आजाद कर दे।
फिर नबी करीम (सल0) मिम्बर पर खड़े हुए और फरमाया- चंद लोगों को क्या हो गया है (नाम नहीं लिया) कि वह ऐसी शर्ते लगाते हैं जिनका अल्लाह की किताब में कोई वजूद नहीं। जिसने ऐसी शर्त लगाई जो अल्लाह की किताब में नहीं उसे कुछ नहीं मिलेगा चाहे वह सौ शर्ते लगाता फिरे। बिल्कुल इसी तरह दूर से डंडे का इशारा करें लेकिन मारे नहीं। मसलन आप की बेगम घर की सफाई पर ध्यान नहीं देती तो आप उनसे कह सकते हैं- कल रात मैंने फलां दोस्त के यहां खाना खाया। उसके घर की सफाई का क्या कहना। शीशे की तरह चमक रहा था सब उसकी तारीफ कर रहे थे।
एक सादा आदमी को यह शौक चढ़ा कि मुझे भी किसी चीज में अपनी मर्जी से खर्च करने का हक होना चाहिए। उसने पानी के दो थरमस लिए। एक सब्ज और दूसरा सुर्ख। उन्हें ठंडे पानी से भरा फिर रास्ते में बैठ गया और आवाज लगाने लगा- ठंडा पानी बिल्कुल मुफ्त। कोई प्यासा उसकी तरफ आता और सब्ज बोतल से पानी पीने लगता तो वह कहता- नहीं सुर्ख से पियो। वह सुर्ख बोतल से पानी पी लेता। दूसरा आता और सुर्ख बोतल से पीना चाहता तो वह हुक्म देता- नहीं सब्ज बोतल से पियो। कोई एतराज करता कि दोनों बोतलों के पानी में क्या फर्क है? तो वह कहता पानी ठीक होने की जिम्मेदारी मुझ पर है। आप को अच्छा लगता है तो पानी पीजिए वरना कोई और इंतजाम कर लें।
यह दरअस्ल इंसान के उस दायमी एहसास का इजहार है कि उसे मोतबर और निहायत अहम गरदाना जाता है।
मुरझाया हुआ चेहरा, सफेद दाढ़ी, हाथ में लाठी, चाल में सुस्तरवी, लड़खड़ाती जबान यह समाज का वह कमजोर तबका है जिसे हम बूढ़ों के नाम से जानते हैं। इंसानी जिंदगी कई मरहलों से गुजरते हुए बुढ़ापे को पहुंचती है। बुढ़ापा गोया इख्तितामे जिंदगी का परवाना है। इख्तितामी मरहले हंसी खुशी से पूरे हों तो उससे दिली तसल्ली भी होती है। रहन-सहन में दुश्वारी भी नहीं। लेकिन आज जो सूरतेहाल बूढ़े लोगों के साथ रवा रखी गई है उससे ऐसा महसूस नहीं होता कि बूढ़े लोग अपनी तबई उम्र भी पूरी कर सकेंगे। हालांकि वालिद ने बच्चे की परवरिश इस उम्मीद पर की थी कि वह बुढ़ापे में वालिद का सहारा होगा। बजाए इसके कि यह लड़का बूढ़े बाप की लाठी बनता बूढ़े वालिद की कमजोर कमर को सहारा देता, रही-सही लाठी व कमर को भी तोड़ देता है। एक तरफ समाज की यह सूरतेहाल है दूसरी तरफ नबी करीम (सल0) का नमूना कि आप (सल0) ने बूढ़ों के साथ कमजोरो के साथ, बूढ़ों के साथ बहुत ही ज्यादा हुस्ने सुलूक का मुजाहिरा किया जहां आप (सल0) ने अपनी तालीमात के जरिए बूढ़े लोगों की कद्रदानी की तालीम दी वही आप (सल0) ने अपने अमल के जरिए कद्रदानी का सबूत भी मुहैया फरमाया। आप (सल0) ने बूढ़े लोगों की अहमियत बयान करते हुए इरशाद फरमाया- अल्लाह तआला की अजमत व बड़ाई का तकाजा यह है कि बूढे मुसलमान का इकराम किया जाए। (अबू दाऊद) एक मौके पर आप (सल0) ने फरमाया- जिस शख्स के बाल इस्लाम की हालत में सफेद हुए हो उसके लिए कयामत के दिन नूर होगा। (तिरमिजी) इन अहादीस से बूढ़े लोगों की अहमियत का बखूबी अंदाजा होता है। अपने जिक्र में आप (सल0) ने बूढ़े को हामिल कुरआन व आदिल बादशाह पर भी मुकद्दम किया है। हालांकि इन दोनों की अहमियत व अजमत अपनी जगह पर मुसल्लम है इसके बावजूद आप (सल0) ने बूढ़ों की रियायत करते हुए उनकी हिमायत फरमाई। दूसरी हदीस में बुढ़ापे के असरात का उखरवी फायदा बयान किया कि जिसपर बुढ़ापा इस्लाम की हालत में आया हो तो उसके लिए अल्लाह बुढ़ापे की कद्रदानी करते हुए रोजे महशर में नूर मुकद्दर फरमाएंगे। आप (सल0) ने बूढ़ों का इकराम व एहतराम करने की तलकीन करते हुए फरमाया- छोटा बड़े को सलाम करे। (बुखारी) बड़ों के इकराम व एहतराम की एक शक्ल सलाम भी है। बड़ों की उम्र और उन की बुजुर्गी का लिहाज करते हुए छोटे ही बड़ों को सलाम किया करे ताकि यह सलाम छोटो की जानिब से बड़ों के इकराम का जज्बा भी जाहिर करे और बड़ों के लिए भी दिल बस्तगी का सामान हो। कई मकामात पर बड़ों को बच्चों से इसी बात की शिकायत होती है कि बच्चे उन्हें सलाम नहीं करते। फितरी तौर पर बड़े इज्जत के तालिब होते हैं क्यों न हम उनके इस तकाजे का लिहाज करते हुए सलाम के जरिए उनकी तबियत को खुश करें। मजालिस में कोई मशरूब आए तो उसमें आप (सल0) ने इस बात का लिहाज किया उस को अव्वल बड़े नोश फरमाएं, बड़ों से आगाज हो। फरमाया- बड़ों से आगाज करो। आप (सल0) ने एक बार मिसवाक करते हुए दो में से बड़े को पहले मिसवाक इनायत फरमाई। (अबू दाऊद) आप (सल0) ने बड़ों की अहमियत उजागर करते हुए फरमाया- बरकत तो तुम्हारे बड़ों के साथ है।
कौन है जो बरकत का मतलाशी न हो? कौन है जो बरकत का तलबगार न हो? आज तो कई एक बेबरकती के शाकी है। ऐसे में बरकत के हुसूल का आसान तरीका यह है कि बूढ़ों को अपने साथ रखा जाए। उनके खर्चों की किफालत की जाए इससे आमदनी में बरकत होगी और एक मौके पर फरमाया- बातचीत में भी बड़ों को मौका दिया। इसकी तशरीह करते हुए यहया ने फरमाया- बाचतीत का आगाज बड़े लोगों से हो (बुखारी) एक मौके पर बूढ़ों के इकराम के फजायल व फायदे जिक्र करते हुए आप (सल0) ने फरमाया- जिस नौजवान ने किसी बूढ़े का इकराम उसकी उम्र की बुनियाद पर किया तो अल्लाह तआला उसके लिए बुढ़ापे में इकराम करने वाला शख्स मुकर्रर फरमाएंगे। (तिरमिजी) कौन है जो अपने बुढ़ापे को हंसी-खुशी पूरा नहीं करना चाहता? कौन है जो बुढ़ापे में खिदमत गुजारों से कतराता है? कौन है जो बुढ़ापे में आराम, सुकून व चैन नहीं चाहता? इन सब के लिए आप (सल0) ने एक आसान नुस्खा इनायत फरमाया कि अपने बूढ़ों का इकराम करो तुम्हें बुढ़ापे में खिदमत गुजार मिल जाएंगे। गरज कि मुख्तलिफ मौकों पर मुख्तलिफ अंदाज से आप (सल0) ने बूढ़ों की अहमियत व अजमत को वाजेह किया और उम्मत को इनपर ध्यान देने की तालीम दी। यह आप (सल0) के करीमाना अखलाक है कि उम्मत के हर कमजोर तबका पर बजाते खुद भी रहम व करम का मामला किया औरों को भी रहम व करम से पेश आने की तलकीन की।
बड़ो के साथ आप (सल0) का तर्जेअमल:- एक बूढ़ा आप (सल0) की मजलिस में हाजिर हुए। आने वाले के लिए लोगों ने मजलिस में गुंजाइश न पैदा की। आप (सल0) ने इस सूरतेहाल को देखकर सहाबा से मुखातिब होकर फरमाया- जो शख्स छोटो पर शफकत न करे बड़ो की इज्जत न करे वह हम में से नहीं। (तिरमिजी) यानी एक मुसलमान मे जो सिफात होनी चाहिए उनमें से एक बड़ों का इकराम भी है। अगर कोई इस अहम इस्लामी सिफत का तलबगार है तो उसे बड़ों के इकराम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए। फतेह मक्का के बाद जो हैरत अंगेज वाक्यात पेश आए उन्हीं मे एक अहम वाक्या हजरत अबू बक्र सिद्दीक के बूढ़े वालिद का भी पेश आया। लोगों ने आप के दस्तेहक पर इस्लाम कुबूल करने के लिए उन्हें आप की मजलिस में हाजिर किया। आपने उनके बुढ़ापे को देखते हुए फरमाया- इन को घर ही में क्यों न छोड़ा? मैं ही खुद उनके घर पहुंच जाता।
वाजेह रहे कि आप मक्का में फातेह बनकर दाखिल हो रहे हैं इसके बावजूद बूढ़ों के साथ आप का यह रहीमाना करीमाना सुलूक है। हालांकि दीगर फातेहीन का तर्जेअमल तो वह है जिसे कुरआन ने बयान किया है कि जब फातेहीन किसी बस्ती में दाखिल होते है तो उस बस्ती को बर्बाद कर देते हैं अहले इज्जत को जलील करना उनका तर्जेअमल होता है। (अल नमल-34) यह बूढ़े लोगों की अमली कद्रदानी है जिसका आप सबूत फराहम कर रहे हैं। आप (सल0) ने उनकी ताजीम करते हुए यह तसव्वुर न किया कि अबू कहाफा एक लम्बे अर्से तक कुफ्र की हालत में रहे अब कुफ्र मगलूब हुआ तो वह मुसलमान हो रहे हैं। कई बार इंसान साबिका इख्तिलाफ की वजह से किसी की ताजीम व तकरीम से कतराता है। हालांकि इसमें उन लोगों के लिए नमूना है कि बूढ़े की बहर सूरत ताजीम की जाए। नमाज के आप (सल0) इंतिहाई हरीस के बावजूद भी बूढ़ों की रियायत में नमाज में तखफीफ फरमा दी। अबू मसूद फरमाते हैं कि एक बार एक सहाबी आप (सल0) की खिदमत में हाजिर होकर शिकायत करने लगे कि मैं जुहर की नमाज में फलां शख्स की तवील किरात की वजह से हाजिर नहीं हो सकता। अबू मसूद कहते हैं कि मैंने इस मौके पर आप (सल0) को जिस गजबनाक कैफियत में देखा इससे पहले कभी नहीं देख। फिर आप (सल0) सहाबा से मुखातिब होकर इरशाद फरमाया- नमाजियों में नमाज से नफरत मत पैदा करो। लिहाजा जो भी शख्स इमामत करे वह हल्की नमाज पढ़ाया करे क्योंकि इसमें कमजोर भी हैं बूढ़े भी हैं जरूरतमंद भी है। (बुखारी) एक और मौके पर आप (सल0) से तवील किरात की शिकायत की गई तो आप (सल0) ने हजरत मआज पर गुस्सा होते हुए फरमाया- ऐ मआज! क्या तुम लोगों को फितना में डालने वाले हो। तीन बार आप (सल0) ने इन कलमात को दुहराया। गौर व खौज का मकाम है कि बूढ़े लोगों की रियायत का सिलसिला नमाज जैसे अहम फरीजे में भी जारी है। बुढि़या का मशहूर वाक्या जिसमें आप (सल0) ने बुढि़या का सामान उठाकर शहर मक्का के बाहर पहुंचा दिया था। हालांकि वह बुढि़या जो इस्लाम से किनाराकशी अख्तियार करते हुए आप (सल0) के खिलाफ बदजुबानी मे मसरूफ थी। लेकिन आप (सल0) की खिदमत के तुफैल में उस बुढि़या ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था। एक बार मजलिस में बाएं जानिब अकाबिर तशरीफ फरमा थे और दाएं जानिब एक बच्चा था और मजलिस में कोइ मशरूब पेश हुआ तो आप (सल0) ने उस बच्चे से इजाजत चाही कि चूंकि दाएं जानिब हो अगर तुम इजाजत दो तो मैं इसका आगाज उस बूढ़े सहाबा से करूं। उस बच्चे ने अपने आप पर किसी को तरजीह देने से इंकार कर दिया। इसलिए आप (सल0) ने वह मशरूब उसी के हाथ में थमा दिया। (बुखारी) गौर तलब बात है कि आप (सल0) बाएं जानिब बड़ों की मौजूदगी के बावजूद इस बात की कोशिश की कि मशरूब का आगाज बड़ों से हो। इसके लिए बच्चे से इजाजत भी मांगी लेकिन यह बच्चे की सआदतमंदी थी कि उसने आप (सल0) के नोश कर्दा को अपने आप पर किसी को तरजीह न दी। इससे भी बड़ो के साथ इकराम का सबक मिलता है कि बहरसूरत उनके इकराम की कोशिश की जाए उनकी तौहीन से बेजारगी का इजहार हो।
तंकीद न करें
वह दोस्त की गाड़ी में सवार हुआ तो छूटते ही बोला -‘‘तुम्हारी गाड़ी कितनी खटारा है?’’ उसके घर गया तो सामाने आराइश देखकर कहा-‘‘ ओह! तुमने घर का सामान नहीं बदला।’’ उसके बच्चे देखे तो बोला -‘‘माशाअल्लाह! कितने प्यारे बच्चे हैं। तुम इन्हें इससे ज्यादा खूबसूरत कपड़े नहीं पहना सकते?’’ बीवी ने खाना पेश किया। बेचारी ने घंटो बावर्ची खाने में ठहर कर खाना तैयार किया था। वह बोला-‘‘ तुम ने चावल क्यों नहीं पकाए? और नमक कम है। यह डिश तो मुझे जरा भी पसंद नहीं।’’ फलों की दुकान पर जाता है। दुकान किस्म किस्म के फलों से भरी पड़ी है। वह पूछता है-‘‘आम मिलेंगे?’’ दुकानदार जवाब देता है -‘‘ जी नहीं, आम गर्मियों में होता है।’’ वह पूछता है-‘‘ तरबूज होगा?’’ दुकानदार -‘‘नहीं’’ वह गुस्से में लालपीला होकर कहता है-‘‘आप के पास कोई चीज नहीं तो यह दुकान क्यों खोल रखी है?’’ और यह भूल जाता है कि दुकान में फलों की चालीस से ज्यादा किस्मे मौजूद हैं।
कुछ लोग तंकीद करके आप को परेशान कर देेते हैं। नामुमकिन है कि उन्हें जल्दी कोई चीज पसंद आ जाए। मजेदार खाने में उन्हें सिर्फ वह बाल नजर आता है जो अनजाने में गिर पड़ा था। साफ कपड़ों में उन्हें सिर्फ स्याही का वह हल्का धब्बा ही दिखाई देता है जो गलती से लग गया है। मुफीद किताब में उन्हें कहीं से पूू्रफ की गलती नजर आ जाती है उसकी तंकीद से कोई नहीं बच सकता।
मैं एक शख्स को जानता हूं जो सेकण्ड्री और यूनिवर्सिटी के दिनों में लम्बे अर्से तक मेरा हम जमाअत रहा है हमारे ताल्लुकात अब भी कायम है। मुझे नहीं याद कि उसने आज तक किसी चीज की तारीफ की हो। मैंने उससे अपनी किताब के बारे मे पूछा जिसकी लोगों ने बड़ी तारीफ की और उसके सैकड़ों हजारों नुस्खे अब तक निकल चुके हैं। उसने सर्दमेहरी से कहा- अच्छी किताब है लेकिन इसमें फलां वाक्या गैर मुनासिब है। प्वाइंट का साइज भी मुझे पसंद नहीं आया, छपाई भी घटिया किस्म की है और......।’’
एक दिन मैंने उससे पूछा कि फलां का अंदाजे तकरीर कैसा है? उसने मुकर्रिर का कोई अच्छा पहलू बयान न किया। वह मुझ पर बहुत नाराज हो गया। अब मैं किसी भी चीज के मुताल्लिक उसकी राय नहीं पूछता।
कुछ लोग मिसालियत का शिकार होेते हैं। ऐसा शख्स चाहता है कि उसकी बीवी चैबीस घंटे घर को शीशे की तरह चमका कर रखे और उसके बच्चे सारा दिन साफ सुथरे अटेंशन रहे, मेहमान आएं तो उन्हें बेहतरीन खाना मिले, बीवी के पास बैठे तो वह उससे खूबसूरत बाते करें, तल्खी पैदा न करे। बच्चे भी हमेशा उसकी हां मे हां मिलाएं, अपने दोस्तों से और गली मोहल्ले, सड़क बाजार में मिलने वाले हर शख्स से वह यही चाहता है कि उसका रवैया सौ फीसद ठीक ठाक हो। उनमें से कोई जरा सी भी कोताही करे तो वह अपनी तेज, धारदार जबान से बेजा तंकीद करता और कदम कदम पर नुक्ताचीनी से दूसरों को बदमजा करके रख देता है। लोग उससे उकता जाते हैं क्योंकि उसे सफेद अबरक सहीफो में सिर्फ स्याह द्दब्बे ही दिखाई देते हैं। जिस शख्स की यह हालत है उसने दरअस्ल अपने आप को अजाब में डाल रखा है। करीबी रिश्तेदार भी उससे कतराते और उसकी सोहबत को सकील समझते हैं। किसी शायर ने खूब कहा है- ‘‘ तुम हर बार कड़वा पानी पीने से इंकार करोगे तो प्यासे रह जाओगे और कितने लोग हैं जिन्हे ंसाफ पानी मिलता है।’’ ‘‘तुम हर काम में अपने रफीक पर नुक्ता चीनी करोगे और उसे डांट पिलाओगे तो याद रखो एक वक्त ऐसा आएगा जब तुम्हारी डांट बरदाश्त करने वाला कोई नहीं होगा।’’
अल्लाह तआला भी इरशाद फरमाते हैं-‘‘ और जब तुम बात करो तो अदल व इंसाफ से काम लो।’’
आयशा सिद्दीका (रजि0) नबी करीम (सल0) का घर वालों से रवैया बयान करते हुए कहती हैं -‘‘ नबी करीम (सल0) ने कभी किसी खाने में ऐब नहीं निकाला। भूक होती तो खा लेते वरना छोड़ देते।’’ जी हां! नबी करीम (सल0) ने कभी किसी चीज को अपनी अना का मसला नहीं बनाया।
हजरत अनस (रजि0) का बयान है-‘‘ मैंने नौ साल नबी करीम (सल0) की खिदमत की। मुझे मालूम नहीं कि मैंने कोई काम किया हो और आपने पूछा हो कि तुमने ऐसा क्यों किया। मुझ पर आपने कभी नुक्ता चीनी नहीं की और न कभी आप ने मुझे उफ कहा।
नबी करीम (सल0) ऐसे ही थे और हमें भी ऐसा ही होना चाहिए। यहां यह वजाहत करनी जरूरी है कि मैं खुदा न ख्वास्ता नसीहत न करने और गलतियां देखकर खामोश रहने की दावत नहीं दे रहा लेकिन हर चीज में और खासतौर से दुनियावी मामलात में दकीकासंज न बनने और हालात के मुताबिक ढलने की कोशिश कीजिए। आपके घर मेहमान आता है आप उसे चाय पेश करते हैं वह प्याली में झांक कर कहता है आप ने प्याली क्यों नहीं भरी। आप कहते हैं कि कुछ और चाय डाल दूं। वह कहता है नहीं नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं। वह पानी मांगता है। आप पानी का गिलास हाजिर करते हैं। वह पानी पीकर कहता है पानी ठंडा नहीं था। फिर वह एयरकंडीशनर की तरफ ध्यान ले जाता है- यह एसी ठंडक नहीं करता। और गर्मी का रोना रोने लगता है। बताएं ऐसे इंसान का वजूद आप के लिए गिरां नहीं होगा और आप तमन्ना नहीं करेंगे कि वह आप के घर से निकल जाए और फिर कभी वापस न आए।
साबित हुआ कि लोग ज्यादा तंकीद पसंद नहीं करते लेकिन आप किसी जगह समझते हो कि यहां तंकीद की जरूरत है तो उसे खुशनुमा गिलाफ मंे लपेट कर दूसरों के सामने पेश कीजिए। आम लफ्जों में या मश्विरे के अंदाज में तंकीद न करें।
नबी करीम (सल0) जब किसी की गलती देखते तो मुंह पर उसका इजहार न करते बल्कि कहते कुछ लोगों को क्या है कि वह ऐसा और ऐसा करते हैं। एक दिन तीन गर्म जोश नौजवान मदीना आए। वह नबी करीम (सल0) की इबादत और नमाज की कैफियत के मुताल्लिक जानना चाहते थे। उन्होंने पाक बीवियों से आप की इबादत के मुताल्लिक पूछा। उन्होंने उन्हें बताया कि आप (सल0) कभी रोजा रखते हैं और कभी नहीं रखते। रात का कुछ हिस्सा सोते हैं और कुछ हिस्सा नमाज पढ़ते हैं। उन्होंने एक दूसरे से कहा- यह नबी करीम (सल0) हैं। अल्लाह ने उनके अगले पिछले गुनाह माफ कर दिए हैं। यह कहकर तीनों ने एक एक फैसला किया। एक ने कहा- मैं कभी शादी नहीं करूंगा। दूसरे ने कहा- मैं हमेशा रोजे रखूंगा। तीसरे ने कहा- मैं रात को आराम के बजाए हमेशा कयाम करूंगा। उन तीनों की यह बात नबी करीम (सल0) को पहुंची। आप फौरन मिम्बर पर तशरीफ फरमा हुए। अल्लाह की हम्द व सना बयान की और फरमाया- चंद लोगों को क्या हो गया है। उन्होनंे यह और यह बाते की हैं। लेकिन मैं तो नमाज पढ़ता हूं और आराम भी करता हूं। रोजे रखता हूं और नहीं भी रखता। मैं औरतों से शादी भी करता हूं जिनसे मेरी सुन्नत से किनाराकशी की वह मुझ से नहीं। एक और मौके पर नबी करीम (सल0) ने महसूस किया कि कुछ नमाजी नमाज के दौरान आसमान की तरफ देखते हैं। यह गलती थी क्योंकि कायदा यह है कि नमाज के दौरान सजदागाह पर नजर रखी जाए। आप (सल0) ने फरमाया- चंद लोगों को क्या मुश्किल है वह नमाज के दौरान आसमान की तरफ देखते हैं। इस पर भी लोग बाज न आए तो आप ने उनके नाम लेकर तवज्जो दिलाने के बजाए सिर्फ इतना कहा- यह लोग इस काम से बाज आ जाएं वरना उनकी निगाहें उचक ली जाएंगी।
मदीना में लौंडी बरीरा थी जो आजाद होना चाहती थीं। उसने अपने आका से इस बारे में बात की। आका ने कुछ रकम अदा करने की शर्त लगाई। बरीरा हजरत आयशा (रजि0) के पास आई और उनसे इस सिलसिले मे मदद की तालिब हुईं। हजरत आयशा (रजि0) ने कहा- तुम चाहो तो मैं तुम्हें रकम दे दूंगी और तुम आजाद हो जाना लेकिन आजादी की निस्बत मेरी होगी।
बरीरा ने अपने आका से बात की तो उसने इंकार कर दिया। उसका इरादा था कि वह दोनों तरफ से फायदा उठाए। आजादी की कीमत भी हासिल करे और निस्बत भी। हजरत आयशा (रजि0) ने नबी करीम (सल0) से दरयाफ्त किया तो आप को ताज्जुब हुआ कि बरीरा का आका कितना लालची है। बेचारी लौंडी को आजाद होने से रोक रहा है। आप ने हजरत आयशा से कहा- तुम उसे खरीद कर आजाद कर दो। आजादी की निस्बत उसी की होती है जो आजाद कर दे।
फिर नबी करीम (सल0) मिम्बर पर खड़े हुए और फरमाया- चंद लोगों को क्या हो गया है (नाम नहीं लिया) कि वह ऐसी शर्ते लगाते हैं जिनका अल्लाह की किताब में कोई वजूद नहीं। जिसने ऐसी शर्त लगाई जो अल्लाह की किताब में नहीं उसे कुछ नहीं मिलेगा चाहे वह सौ शर्ते लगाता फिरे। बिल्कुल इसी तरह दूर से डंडे का इशारा करें लेकिन मारे नहीं। मसलन आप की बेगम घर की सफाई पर ध्यान नहीं देती तो आप उनसे कह सकते हैं- कल रात मैंने फलां दोस्त के यहां खाना खाया। उसके घर की सफाई का क्या कहना। शीशे की तरह चमक रहा था सब उसकी तारीफ कर रहे थे।
एक सादा आदमी को यह शौक चढ़ा कि मुझे भी किसी चीज में अपनी मर्जी से खर्च करने का हक होना चाहिए। उसने पानी के दो थरमस लिए। एक सब्ज और दूसरा सुर्ख। उन्हें ठंडे पानी से भरा फिर रास्ते में बैठ गया और आवाज लगाने लगा- ठंडा पानी बिल्कुल मुफ्त। कोई प्यासा उसकी तरफ आता और सब्ज बोतल से पानी पीने लगता तो वह कहता- नहीं सुर्ख से पियो। वह सुर्ख बोतल से पानी पी लेता। दूसरा आता और सुर्ख बोतल से पीना चाहता तो वह हुक्म देता- नहीं सब्ज बोतल से पियो। कोई एतराज करता कि दोनों बोतलों के पानी में क्या फर्क है? तो वह कहता पानी ठीक होने की जिम्मेदारी मुझ पर है। आप को अच्छा लगता है तो पानी पीजिए वरना कोई और इंतजाम कर लें।
यह दरअस्ल इंसान के उस दायमी एहसास का इजहार है कि उसे मोतबर और निहायत अहम गरदाना जाता है।
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